अब ये भी नहीं कि नाम तो लेते हैं
दामन फ़क़त अश्कों से भिगो लेते हैं
अब हम तिरा नाम ले के रोते भी नहीं
सुनते हैं तिरा नाम तो रो लेते हैं
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ताकीद है कि दीदा-ए-दिल वा करे कोई
दिल सरापा दर्द था वो इब्तिदा-ए-इश्क़ थी
जल्वा ओ दिल में फ़र्क़ नहीं जल्वे को ही अब दिल कहते हैं
इब्तिदा-ए-इश्क़ है लुत्फ़-ए-शबाब आने को है
मुझे बुला के यहाँ आप छुप गया कोई
करम-ए-बे-हिसाब चाहा था
होते हैं राज़-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत इसी से फ़ाश
तिरी तिरछी नज़र का तीर है मुश्किल से निकलेगा
यूँ नज़्म-ए-जहाँ दरहम-ओ-बरहम न हुआ था
रोने के भी आदाब हुआ करते हैं 'फ़ानी'
मुस्कुराए वो हाल-ए-दिल सुन कर
शिकवा-ए-हिज्र पे सर काट के फ़रमाते हैं