करम-ए-बे-हिसाब चाहा था
सितम-ए-बे-हिसाब में गुज़री
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जज़्ब-ए-दिल जब ब-रू-ए-कार आया
मुस्कुराए वो हाल-ए-दिल सुन कर
हम मौत भी आए तो मसरूर नहीं होते
अब नए सुर से छेड़ पर्दा-ए-साज़
अपनी जन्नत मुझे दिखला न सका तू वाइज़
मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख
जवानी को बचा सकते तो हैं हर दाग़ से वाइ'ज़
वो नज़र कामयाब हो के रही
हर घड़ी इंक़लाब में गुज़री
हर साँस के साथ जा रहा हूँ
दैर में या हरम में गुज़रेगी
कश्ती-ए-ए'तिबार तोड़ के देख