मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख
रस्ते में छाँव पा के मुसाफ़िर ठहर न जाए
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हर तबस्सुम का दिया एक तबस्सुम से जवाब
फिर किसी की याद ने तड़पा दिया
दिल-ए-मरहूम को ख़ुदा बख़्शे
मर कर तिरे ख़याल को टाले हुए तो हैं
हज़ार ढूँडिए उस का निशाँ नहीं मिलता
मुझ को मिरे नसीब ने रोज़-ए-अज़ल से क्या दिया
बे-ख़ुदी पे था 'फ़ानी' कुछ न इख़्तियार अपना
माया-ए-नाज़-ए-राज़ हैं हम लोग
गुज़र गया इंतिज़ार हद से ये वादा-ए-ना-तमाम कब तक
जीने की है उम्मीद न मरने का यक़ीं है
दिल की काया ग़म ने वो पल्टी कि तुझ सा बन गया
जज़्ब-ए-दिल जब ब-रू-ए-कार आया