रोने के भी आदाब हुआ करते हैं 'फ़ानी'
ये उस की गली है तेरा ग़म-ख़ाना नहीं है
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किसी के एक इशारे में किस को क्या न मिला
ज़माना बर-सर-ए-आज़ार था मगर 'फ़ानी'
बिजलियाँ टूट पड़ीं जब वो मुक़ाबिल से उठा
शिकवा-ए-हिज्र पे सर काट के फ़रमाते हैं
यूँ न किसी तरह कटी जब मिरी ज़िंदगी की रात
फिर किसी की याद ने तड़पा दिया
शबाब-ए-होश कि फ़िल-जुमला यादगार हुई
क़सम न खाओ तग़ाफ़ुल से बाज़ आने की
मुझ पे रखते हैं हश्र में इल्ज़ाम
अब नए सुर से छेड़ पर्दा-ए-साज़
कुछ कम तो हुआ रंज-ए-फ़रावान-ए-तमन्ना