ज़माना बर-सर-ए-आज़ार था मगर 'फ़ानी'
तड़प के हम ने भी तड़पा दिया ज़माने को
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मर कर मरीज़-ए-ग़म की वो हालत नहीं रही
या तिरे मुहताज हैं ऐ ख़ून-ए-दिल
जीने भी नहीं देते मरने भी नहीं देते
हर तबस्सुम का दिया एक तबस्सुम से जवाब
यूँ न किसी तरह कटी जब मिरी ज़िंदगी की रात
क्या कहिए कि बेदाद है तेरी बेदाद
वो नज़र कामयाब हो के रही
इब्तिदा-ए-इश्क़ है लुत्फ़-ए-शबाब आने को है
कफ़न ऐ गर्द-ए-लहद देख न मैला हो जाए
क्यूँ न नैरंग-ए-जुनूँ पर कोई क़ुर्बां हो जाए
मुझे बुला के यहाँ आप छुप गया कोई
अदा से आड़ में ख़ंजर के मुँह छुपाए हुए