सुने जाते न थे तुम से मिरे दिन रात के शिकवे
कफ़न सरकाओ मेरी बे-ज़बानी देखते जाओ
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इश्क़ इश्क़ हो शायद हुस्न में फ़ना हो कर
होते हैं राज़-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत इसी से फ़ाश
दिल का उजड़ना सहल सही बसना सहल नहीं ज़ालिम
बे-ख़ुदी पे था 'फ़ानी' कुछ न इख़्तियार अपना
लुत्फ़ ओ करम के पुतले हो अब क़हर ओ सितम का नाम नहीं
वो नज़र कामयाब हो के रही
करम-ए-बे-हिसाब चाहा था
मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख
ज़िंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं
जीने की है उम्मीद न मरने का यक़ीं है
गुज़र गया इंतिज़ार हद से ये वादा-ए-ना-तमाम कब तक
फ़ानी दवा-ए-दर्द-ए-जिगर ज़हर तो नहीं