नहीं ज़रूर कि मर जाएँ जाँ-निसार तेरे
यही है मौत कि जीना हराम हो जाए
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जल्वा-ए-इश्क़ हक़ीक़त थी हुस्न-ए-मजाज़ बहाना था
कुछ कम तो हुआ रंज-ए-फ़रावान-ए-तमन्ना
या कहते थे कुछ कहते जब उस ने कहा कहिए
वो सुब्ह-ए-ईद का मंज़र तिरे तसव्वुर में
किसी के एक इशारे में किस को क्या न मिला
ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल तिरे दीवाने का
वो नज़र कामयाब हो के रही
तेरा निगाह-ए-शौक़ कोई राज़-दाँ न था
हासिल-ए-इल्म-ए-बशर जहल का इरफ़ाँ होना
एक आलम को देखता हूँ मैं
दैर में या हरम में गुज़रेगी
अपनी जन्नत मुझे दिखला न सका तू वाइज़