ना-मेहरबानियों का गिला तुम से क्या करें
हम भी कुछ अपने हाल पे अब मेहरबाँ नहीं
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किस ख़राबी से ज़िंदगी 'फ़ानी'
रूह घबराई हुई फिरती है मेरी लाश पर
हिज्र में मुस्कुराए जा दिल में उसे तलाश कर
मर के टूटा है कहीं सिलसिला-क़ैद-ए-हयात
मर कर मरीज़-ए-ग़म की वो हालत नहीं रही
दुनिया मेरी बला जाने महँगी है या सस्ती है
बेदाद के ख़ूगर थे फ़रियाद तो क्या करते
जिस्म-ए-आज़ादी में फूंकी तू ने मजबूरी की रूह
क्यूँ न नैरंग-ए-जुनूँ पर कोई क़ुर्बां हो जाए
ऐ बे-ख़ुदी ठहर कि बहुत दिन गुज़र गए
मौत का इंतिज़ार बाक़ी है