इक मुअम्मा है समझने का न समझाने का
ज़िंदगी काहे को है ख़्वाब है दीवाने का
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मेरी हवस को ऐश-ए-दो-आलम भी था क़ुबूल
मर के टूटा है कहीं सिलसिला-क़ैद-ए-हयात
आह अब तक तो बे-असर न हुई
दैर में या हरम में गुज़रेगी
ऐ मौत तुझ पे उम्र-ए-अबद का मदार है
कश्ती-ए-ए'तिबार तोड़ के देख
मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख
मौत का इंतिज़ार बाक़ी है
जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूर
कितनों को जिगर का ज़ख़्म सीते देखा
दिल की तरफ़ हिजाब-ए-तकल्लुफ़ उठा के देख
अब ये भी नहीं कि नाम तो लेते हैं