हमारे तन पे कोई क़ीमती क़बा न सही
ग़ज़ल को अपनी मगर ख़ुश-लिबास रखते हैं
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दिन में भी हसरत-ए-महताब लिए फिरते हैं
जो भी अंजाम हो आग़ाज़ किए देते हैं
कम्पयूटर
मेरी दादी
कौन आता है अयादत के लिए देखें 'फ़राग़'
कभी न सोचा था मैं ने उड़ान भरते हुए
न जाने कैसा समुंदर है इश्क़ का जिस में
एक रहें हम
जिस दिन से कोई ख़्वाहिश-ए-दुनिया नहीं रखता
दिमाग़ अहल-ए-मोहब्बत का साथ देता नहीं
इक दिन वो मेरे ऐब गिनाने लगा 'फ़राग़'