फूलों की ताज़गी में उदासी है शाम की
साए ग़मों के इतने तो गहरे कभी न थे
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इक दिल की ख़ातिर इतने तो फ़ित्ने कभी न थे
ये दिल है दिल इसे सीने में हरगिज़
धूप की सख़्ती तो थी लेकिन 'फ़राज़'
वो अक्स-ए-दिल-ए-आश्ना छोड़ आए
बिछड़ते दामनों में अपनी कुछ परछाइयाँ रख दो
कहीं ऐसा न हो मैं दूर ख़ुद अपने से हो जाऊँ
निकल के घर से और मैदाँ में आ के
अश्क-ए-ग़म आँखों ने बरसाया बहुत
'फ़राज़' इस तरह ज़िंदगी है गुज़ारी