रात से एक सोच में गुम हूँ
किस बहाने तुझे कहूँ आ जा
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वो ख़ुदा है तो भला उस से शिकायत कैसी?
हथेली से ठंडा धुआँ उठ रहा है
उस की जानिब से बढ़ा एक क़दम
एक पुराना ख़्वाब
आईने से झाँकती नज़्म
ज़माने अब तिरे मद्द-ए-मुक़ाबिल
एक सौ बीस दिन
वो अगर अब भी कोई अहद निभाना चाहे
इसे भी छोड़ूँ उसे भी छोड़ूँ तुम्हें सभी से ही मसअला है?
हम आज क़ौस-ए-क़ुज़ह के मानिंद एक दूजे पे खिल रहे हैं
हम तोहफ़े में घड़ियाँ तो दे देते हैं