उस की जानिब से बढ़ा एक क़दम
मेरे सौ साल बढ़ा देता है
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ऐ मिरी ज़ात के सुकूँ आ जा
रात से एक सोच में गुम हूँ
एक पुराना ख़्वाब
हमारे कमरे में पत्तियों की महक ने
तुम्हें पता है मिरे हाथ की लकीरों में
खुल कर आख़िर जहल का एलान होना चाहिए
शनासाई का सिलसिला देखती हूँ
ऐन मुमकिन है उसे मुझ से मोहब्बत ही न हो
तुम मिरी वहशतों के साथी थे
दे रहे हैं लोग मेरे दिल पे दस्तक बार बार
मैं शाम से शायद डूबी थी