खुल कर आख़िर जहल का एलान होना चाहिए
हक़-परस्तों के लिए ज़िंदान होना चाहिए
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वो ख़ुदा है तो भला उस से शिकायत कैसी?
क्यूँ दिया था? बता! मेरी वीरानियों में सहारा मुझे
ऐ मिरी ज़ात के सुकूँ आ जा
एक सौ बीस दिन
उसे भूलने का सितम कर रहे हैं
भली क्यूँ लगे हम को ख़ुशियों की दस्तक
तुम्हें पता है मिरे हाथ की लकीरों में
ज़माने अब तिरे मद्द-ए-मुक़ाबिल
लाख दिल ने पुकारना चाहा
उस की जानिब से बढ़ा एक क़दम