हम आज क़ौस-ए-क़ुज़ह के मानिंद एक दूजे पे खिल रहे हैं
मुझे तो पहले से लग रहा था ये आसमानों का सिलसिला है
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वो अगर अब भी कोई अहद निभाना चाहे
खुल कर आख़िर जहल का एलान होना चाहिए
ऐ मिरी ज़ात के सुकूँ आ जा
तुम मिरी वहशतों के साथी थे
किस किस फूल की शादाबी को मस्ख़ करोगे बोलो!!!
हमारे कमरे में पत्तियों की महक ने
मैं शाम से शायद डूबी थी
तुम्हें पाने की हैसिय्यत नहीं है
उसे भूलने का सितम कर रहे हैं
ऐन मुमकिन है उसे मुझ से मोहब्बत ही न हो
बीते ख़्वाब की आदी आँखें कौन उन्हें समझाए