काँच के अल्फ़ाज़ काग़ज़ पर न रख
संग-ए-मअ'नी बन के टकराऊँगा मैं
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फिर पहाड़ों से उतर कर आएँगे
अब फ़क़ीरी में कोई बात नहीं
मैं हूँ 'मुज़्तर' बदन की नगरी में
अजीब रंग सा चेहरों पे बे-कसी का है
मुझ से क्या पूछते हो नाम पता
एहसास
वही मैं हूँ वही ख़ाली मकाँ है
मशवरा देने की कोशिश तो करो
सुना है लोग वहाँ मुझ से ख़ार खाते हैं
जूँही बाम-ओ-दर जागे
वही में हूँ वही ख़ाली मकाँ है
नींद क्यूँ नहीं आती