तिरे ख़िलाफ़ किया जब भी एहतिजाज ऐ दोस्त
मिरा वजूद भी शामिल नहीं हुआ मिरे साथ
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दर-ए-फ़क़ीर पे जो आए वो दुआ ले जाए
हम वफ़ादार हैं और इस से ज़ियादा क्या हों
आसमानों पे उड़ो ज़ेहन में रक्खो कि जो चीज़
इश्क़ हूँ जुरअत-ए-इज़हार भी कर सकता हूँ
नख़्ल-ए-ममनूअा के रुख़ दोबारा गया मैं तो मारा गया
गुँध के मिट्टी जो कभी चाक पे आ जाती है
गली का पत्थर था मुझ में आया बिगाड़ ऐसा
वो भी गुमराह हो गया होगा
सफ़-ए-मातम पे जो हम नाचने गाने लग जाएँ
हम हैं बस इज़्न-ए-सफ़र होने तक
वो अपनी ज़ात में गुम था नहीं खुला मिरे साथ