'हफ़ीज़' अपनी बोली मोहब्बत की बोली
न उर्दू न हिन्दी न हिन्दोस्तानी
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ज़िंदगी और मिले और मिले और मिले
इक बार फिर वतन में गया जा के आ गया
दिल ने आँखों तक आने में इतना वक़्त लिया
मैं वो बस्ती हूँ कि याद-ए-रफ़्तगाँ के भेस में
अभी तो मैं जवान हूँ
मिरा तजरबा है कि इस ज़िंदगी में
अगर मौज है बीच धारे चला चल
रंग बदला यार ने वो प्यार की बातें गईं
देखा जो खा के तीर कमीं-गाह की तरफ़
तसव्वुर में भी अब वो बे-नक़ाब आते नहीं मुझ तक
कोई दवा न दे सके मशवरा-ए-दुआ दिया
वो क़ाफ़िला आराम-तलब हो भी तो क्या हो