आदमी का आदमी हर हाल में हमदर्द हो
इक तवज्जोह चाहिए इंसाँ को इंसाँ की तरफ़
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न आ जाए किसी पर दिल किसी का
सच है इस एक पर्दे में छुपते हैं लाख ऐब
बताऊँ क्या किसी को मैं कि तुम क्या चीज़ हो क्या हो
दिल पर लगा रही है वो नीची निगाह चोट
इधर होते होते उधर होते होते
क़ैद में इतना ज़माना हो गया
बैठ जाता हूँ जहाँ छाँव घनी होती है
शब-ए-वस्ल है बहस हुज्जत अबस
कोई जहाँ में न यारब हो मुब्तला-ए-फ़िराक़
क़सम निबाह की खाई थी उम्र भर के लिए
दुनिया में यूँ तो हर कोई अपनी सी कर गया
वो हम-कनार है जाम-ए-शराब हाथ में है