तुम्हारे बाद उजाले भी हो गए रुख़्सत
हमारे शहर का मंज़र भी गाँव जैसा है
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कभी वो हाथ न आया हवाओं जैसा है
ये तमाशा भी अजब है उन के उठ जाने के बाद
मय-कशी गर्दिश-ए-अय्याम से आगे न बढ़ी
दो घड़ी दर्द ने आँखों में भी रहने न दिया
आसान किस क़दर है समझ लो मिरा पता
हाए वो वक़्त-ए-जुदाई के हमारे आँसू
जिस ने भी मुझे देखा है पत्थर से नवाज़ा
ये दर्द है हमदम उसी ज़ालिम की निशानी
जब से तू ने मुझे दीवाना बना रक्खा है
आँखों ने हाल कह दिया होंट न फिर हिला सके
पत्थरो आज मिरे सर पे बरसते क्यूँ हो