शामिल हुए हैं बज़्म में मिस्ल-ए-चराग़ हम
अब सुब्ह तक जलेंगे लगातार देखना
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अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा
वो मुझे सोज़-ए-तमन्ना की तपिश समझा गया
साज़ में सोज़ जब नहीं आता
अजब है आलम अजब है मंज़र कि सकता में है ये चश्म-ए-हैरत
जब भी उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की हवा आती है
देखना ये इश्क़ में हुस्न-ए-पज़ीराई के रंग
नफ़स नफ़स ने उड़ाईं हवाइयाँ क्या क्या
वो दिल में और क़रीब-ए-रग-ए-गुलू भी मिले
पूछती रहती है जो क़ैसर-ओ-किसरा का मिज़ाज
संग बरसेंगे और मुस्कुराएँगे हम
इज़हार पे भारी है ख़मोशी का तकल्लुम