पूछती रहती है जो क़ैसर-ओ-किसरा का मिज़ाज
शान ये ख़ाक-नशीनों में कहाँ से आई
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कोई साग़र पे साग़र पी रहा है कोई तिश्ना है
जो मुसाफ़िर भी तिरे कूचे से गुज़रा होगा
हसीन सूरत हमें हमेशा हसीं ही मालूम क्यूँ न होती
निगाहें फेरने वाले ये नज़रें उठ ही जाती हैं
आँखों में जल रहे थे दिए ए'तिबार के
इतना सुकून तो ग़म-ए-पिन्हाँ में आ गया
नफ़स नफ़स ने उड़ाईं हवाइयाँ क्या क्या
बज़्म को रंग-ए-सुख़न मैं ने दिया है 'अख़्गर'
शामिल हुए हैं बज़्म में मिस्ल-ए-चराग़ हम
लोग मिलने को चले आते हैं दीवाने से
जो कुशूद-ए-कार-ए-तिलिस्म है वो फ़क़त हमारा ही इस्म है
आइने में है फ़क़त आप का अक्स