शदीद तुंद हवाएँ हैं क्या किया जाए
सुकूत-ए-ग़म की सदाएँ हैं क्या किया जाए
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नफ़स नफ़स ने उड़ाईं हवाइयाँ क्या क्या
इश्क़ में दिल का ये मंज़र देखा
जो है ताज़गी मिरी ज़ात में वही ज़िक्र-ओ-फ़िक्र-ए-चमन में है
यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा
ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे
इतना सुकून तो ग़म-ए-पिन्हाँ में आ गया
आँखों में जल रहे थे दिए ए'तिबार के
बज़्म को रंग-ए-सुख़न मैं ने दिया है 'अख़्गर'
हर-चंद हमा-गीर नहीं ज़ौक़-ए-असीरी
काफ़िर सही हज़ार मगर इस को क्या कहें
इस तरह अहद-ए-तमन्ना को गुज़ारे जाइए