काफ़िर सही हज़ार मगर इस को क्या कहें
हम पर वो मेहरबाँ है मुसलमान की तरह
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जो है ताज़गी मिरी ज़ात में वही ज़िक्र-ओ-फ़िक्र-ए-चमन में है
अज़्म-ए-सफ़र से पहले भी और ख़त्म-ए-सफ़र से आगे भी
जो मुसाफ़िर भी तिरे कूचे से गुज़रा होगा
दिल की मिरे बिसात क्या एक दिया बुझा हुआ
कोई साग़र पे साग़र पी रहा है कोई तिश्ना है
यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा
बज़्म को रंग-ए-सुख़न मैं ने दिया है 'अख़्गर'
ये सानेहा भी बड़ा अजब है कि अपने ऐवान-ए-रंग-ओ-बू में
शामिल हुए हैं बज़्म में मिस्ल-ए-चराग़ हम
वो मुझे सोज़-ए-तमन्ना की तपिश समझा गया
इश्क़ में दिल का ये मंज़र देखा