जो मुसाफ़िर भी तिरे कूचे से गुज़रा होगा
अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा
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ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे
देखिए रुस्वा न हो जाए कहीं कार-ए-जुनूँ
साज़ में सोज़ जब नहीं आता
वो दिल में और क़रीब-ए-रग-ए-गुलू भी मिले
काफ़िर सही हज़ार मगर इस को क्या कहें
लोग मिलने को चले आते हैं दीवाने से
तोड़ कर जोड़ दिया करते हो क्या करते हो
जो कुशूद-ए-कार-ए-तिलिस्म है वो फ़क़त हमारा ही इस्म है
जल्वों का जो तेरे कोई प्यासा नज़र आया
अजब है आलम अजब है मंज़र कि सकता में है ये चश्म-ए-हैरत
पूछती रहती है जो क़ैसर-ओ-किसरा का मिज़ाज
जब भी उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की हवा आती है