जो कुशूद-ए-कार-ए-तिलिस्म है वो फ़क़त हमारा ही इस्म है
वो गिरह किसी से खुलेगी क्या जो तिरी जबीं की शिकन में है
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ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे
अज़्म-ए-सफ़र से पहले भी और ख़त्म-ए-सफ़र से आगे भी
अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा
बे-शक असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ हैं बे-शुमार
इश्क़ जब मंज़िल-ए-आख़िर से गुज़रता होगा
लोग मिलने को चले आते हैं दीवाने से
इस तरह अहद-ए-तमन्ना को गुज़ारे जाइए
तोड़ कर जोड़ दिया करते हो क्या करते हो
अजब है आलम अजब है मंज़र कि सकता में है ये चश्म-ए-हैरत
पल-भर न बिजलियों के मुक़ाबिल ठहर सके
कोई साग़र पे साग़र पी रहा है कोई तिश्ना है
फ़ुक़दान-ए-उरूज-ए-रसन-ओ-दार नहीं है