फ़ुक़दान-ए-उरूज-ए-रसन-ओ-दार नहीं है
मंसूर बहुत हैं लब-ए-इज़हार नहीं है
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ये सानेहा भी बड़ा अजब है कि अपने ऐवान-ए-रंग-ओ-बू में
दिल की मिरे बिसात क्या एक दिया बुझा हुआ
ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे
हर-चंद हमा-गीर नहीं ज़ौक़-ए-असीरी
काफ़िर सही हज़ार मगर इस को क्या कहें
कुश्ता-ए-ज़बत-ए-फुग़ाँ नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-सदा
इश्क़ में दिल का ये मंज़र देखा
यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा
शदीद तुंद हवाएँ हैं क्या किया जाए
हर तरफ़ हैं ख़ाना-बर्बादी के मंज़र बे-शुमार