देखो हमारी सम्त कि ज़िंदा हैं हम अभी
सच्चाइयों की आख़िरी पहचान की तरह
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Faiz Ahmad Faiz
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इतना सुकून तो ग़म-ए-पिन्हाँ में आ गया
जब भी उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की हवा आती है
ये सानेहा भी बड़ा अजब है कि अपने ऐवान-ए-रंग-ओ-बू में
देखना ये इश्क़ में हुस्न-ए-पज़ीराई के रंग
कुश्ता-ए-ज़बत-ए-फुग़ाँ नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-सदा
जो कुशूद-ए-कार-ए-तिलिस्म है वो फ़क़त हमारा ही इस्म है
शिकस्ता दिल किसी का हो हम अपना दिल समझते हैं
जो मुसाफ़िर भी तिरे कूचे से गुज़रा होगा
तोड़ कर जोड़ दिया करते हो क्या करते हो
किसी के जौर-ए-मुसलसल का फ़ैज़ है 'अख़्गर'
तुम ख़ुद ही मोहब्बत की हर इक बात भुला दो