किसी के जौर-ए-मुसलसल का फ़ैज़ है 'अख़्गर'
वगरना दर्द हमारे सुख़न में कितना था
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दिल की मिरे बिसात क्या एक दिया बुझा हुआ
शदीद तुंद हवाएँ हैं क्या किया जाए
यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा
तुम ख़ुद ही मोहब्बत की हर इक बात भुला दो
आँखों में जल रहे थे दिए ए'तिबार के
जो है ताज़गी मिरी ज़ात में वही ज़िक्र-ओ-फ़िक्र-ए-चमन में है
शामिल हुए हैं बज़्म में मिस्ल-ए-चराग़ हम
काफ़िर सही हज़ार मगर इस को क्या कहें
इश्क़ जब मंज़िल-ए-आख़िर से गुज़रता होगा
शिकस्ता दिल किसी का हो हम अपना दिल समझते हैं
तुम्हारी आँखों की गर्दिशों में बड़ी मुरव्वत है हम ने माना
देखना ये इश्क़ में हुस्न-ए-पज़ीराई के रंग