तुम्हारी आँखों की गर्दिशों में बड़ी मुरव्वत है हम ने माना
मगर न इतनी तसल्लियाँ दो कि दम निकल जाए आदमी का
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वो मुझे सोज़-ए-तमन्ना की तपिश समझा गया
अज़्म-ए-सफ़र से पहले भी और ख़त्म-ए-सफ़र से आगे भी
इस तरह मह-रुख़ों को पशेमाँ करेंगे हम
इज़हार पे भारी है ख़मोशी का तकल्लुम
देखो हमारी सम्त कि ज़िंदा हैं हम अभी
पूछती रहती है जो क़ैसर-ओ-किसरा का मिज़ाज
अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा
यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा
जो कुशूद-ए-कार-ए-तिलिस्म है वो फ़क़त हमारा ही इस्म है
साज़ में सोज़ जब नहीं आता
निगाहें फेरने वाले ये नज़रें उठ ही जाती हैं
जल्वों का जो तेरे कोई प्यासा नज़र आया