वो कम-सिनी में भी 'अख़्गर' हसीन था लेकिन
अब उस के हुस्न का आलम अजीब आलम है
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फ़ुक़दान-ए-उरूज-ए-रसन-ओ-दार नहीं है
नफ़स नफ़स ने उड़ाईं हवाइयाँ क्या क्या
देखो हमारी सम्त कि ज़िंदा हैं हम अभी
बज़्म को रंग-ए-सुख़न मैं ने दिया है 'अख़्गर'
यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा
शामिल हुए हैं बज़्म में मिस्ल-ए-चराग़ हम
शदीद तुंद हवाएँ हैं क्या किया जाए
तुम ख़ुद ही मोहब्बत की हर इक बात भुला दो
इस तरह मह-रुख़ों को पशेमाँ करेंगे हम
ये सानेहा भी बड़ा अजब है कि अपने ऐवान-ए-रंग-ओ-बू में
इश्क़ में दिल का ये मंज़र देखा
किसी के जौर-ए-मुसलसल का फ़ैज़ है 'अख़्गर'