याद-ए-फ़रोग़-ए-दस्त-ए-हिनाई न पूछिए
हर ज़ख़्म-ए-दिल को रश्क-ए-नमक-दाँ बना दिया
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जब भी उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की हवा आती है
फ़ुक़दान-ए-उरूज-ए-रसन-ओ-दार नहीं है
इश्क़ जब मंज़िल-ए-आख़िर से गुज़रता होगा
जो मुसाफ़िर भी तिरे कूचे से गुज़रा होगा
तुम्हारी आँखों की गर्दिशों में बड़ी मुरव्वत है हम ने माना
इज़हार पे भारी है ख़मोशी का तकल्लुम
शदीद तुंद हवाएँ हैं क्या किया जाए
इतना सुकून तो ग़म-ए-पिन्हाँ में आ गया
शामिल हुए हैं बज़्म में मिस्ल-ए-चराग़ हम
साज़ में सोज़ जब नहीं आता
दिल की मिरे बिसात क्या एक दिया बुझा हुआ
ये सानेहा भी बड़ा अजब है कि अपने ऐवान-ए-रंग-ओ-बू में