इज़हार पे भारी है ख़मोशी का तकल्लुम
हर्फ़ों की ज़बाँ और है आँखों की ज़बाँ और
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अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा
हर तरफ़ हैं ख़ाना-बर्बादी के मंज़र बे-शुमार
कोई साग़र पे साग़र पी रहा है कोई तिश्ना है
जो मुसाफ़िर भी तिरे कूचे से गुज़रा होगा
इस तरह मह-रुख़ों को पशेमाँ करेंगे हम
निगाहें फेरने वाले ये नज़रें उठ ही जाती हैं
हाल-ए-दिल-ए-बीमार समझ में चारागरों की आए कम
लोग मिलने को चले आते हैं दीवाने से
साज़ में सोज़ जब नहीं आता
काफ़िर सही हज़ार मगर इस को क्या कहें
इतना सुकून तो ग़म-ए-पिन्हाँ में आ गया