इश्क़ में दिल का ये मंज़र देखा
आग में जैसे समुंदर देखा
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यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा
देखो हमारी सम्त कि ज़िंदा हैं हम अभी
फ़ुक़दान-ए-उरूज-ए-रसन-ओ-दार नहीं है
कुश्ता-ए-ज़बत-ए-फुग़ाँ नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-सदा
ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे
अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा
काफ़िर सही हज़ार मगर इस को क्या कहें
शामिल हुए हैं बज़्म में मिस्ल-ए-चराग़ हम
इस तरह मह-रुख़ों को पशेमाँ करेंगे हम
वो दिल में और क़रीब-ए-रग-ए-गुलू भी मिले
हाल-ए-दिल-ए-बीमार समझ में चारागरों की आए कम
देखना ये इश्क़ में हुस्न-ए-पज़ीराई के रंग