ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे
दिल समुंदर में भी दीवार उठाना चाहे
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देखिए रुस्वा न हो जाए कहीं कार-ए-जुनूँ
जो है ताज़गी मिरी ज़ात में वही ज़िक्र-ओ-फ़िक्र-ए-चमन में है
किसी के जौर-ए-मुसलसल का फ़ैज़ है 'अख़्गर'
तोड़ कर जोड़ दिया करते हो क्या करते हो
काफ़िर सही हज़ार मगर इस को क्या कहें
इतना सुकून तो ग़म-ए-पिन्हाँ में आ गया
कुश्ता-ए-ज़बत-ए-फुग़ाँ नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-सदा
बज़्म को रंग-ए-सुख़न मैं ने दिया है 'अख़्गर'
कोई साग़र पे साग़र पी रहा है कोई तिश्ना है
इस तरह मह-रुख़ों को पशेमाँ करेंगे हम
हर-चंद हमा-गीर नहीं ज़ौक़-ए-असीरी
साज़ में सोज़ जब नहीं आता