निगाहें फेरने वाले ये नज़रें उठ ही जाती हैं
कभी बेगानगी वज्ह-ए-शनासाई भी होती है
Ahmad Faraz
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तुम्हारी आँखों की गर्दिशों में बड़ी मुरव्वत है हम ने माना
साज़ में सोज़ जब नहीं आता
अज़्म-ए-सफ़र से पहले भी और ख़त्म-ए-सफ़र से आगे भी
देखिए रुस्वा न हो जाए कहीं कार-ए-जुनूँ
वो मुझे सोज़-ए-तमन्ना की तपिश समझा गया
शदीद तुंद हवाएँ हैं क्या किया जाए
जो है ताज़गी मिरी ज़ात में वही ज़िक्र-ओ-फ़िक्र-ए-चमन में है
नफ़स नफ़स ने उड़ाईं हवाइयाँ क्या क्या
इश्क़ में दिल का ये मंज़र देखा
आइने में है फ़क़त आप का अक्स
इज़हार पे भारी है ख़मोशी का तकल्लुम
इस तरह मह-रुख़ों को पशेमाँ करेंगे हम