आँखों में जल रहे थे दिए ए'तिबार के
एहसास-ए-ज़ुल्मत-ए-शब-ए-हिज्राँ नहीं रहा
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दिल की मिरे बिसात क्या एक दिया बुझा हुआ
संग बरसेंगे और मुस्कुराएँगे हम
हाल-ए-दिल-ए-बीमार समझ में चारागरों की आए कम
ख़ल्वत-ए-जाँ में तिरा दर्द बसाना चाहे
पूछती रहती है जो क़ैसर-ओ-किसरा का मिज़ाज
लोग मिलने को चले आते हैं दीवाने से
बे-शक असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ हैं बे-शुमार
देखना ये इश्क़ में हुस्न-ए-पज़ीराई के रंग
जो है ताज़गी मिरी ज़ात में वही ज़िक्र-ओ-फ़िक्र-ए-चमन में है
यादों का शहर-ए-दिल में चराग़ाँ नहीं रहा
अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा
साज़ में सोज़ जब नहीं आता