मुद्दतें गुज़रीं मुलाक़ात हुई थी तुम से
फिर कोई और न आया नज़र आईने में
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अपने काँधों पे लिए फिरता हूँ अपनी ही सलीब
मिले वो लम्हा जिसे अपना कह सकें 'कैफ़ी'
सब नज़र आते हैं चेहरे गर्द गर्द
हर इक कमाल को देखा जो हम ने रू ब-ज़वाल
आरज़ूएँ कमाल-आमादा
है राह-रौ के हुए हादसात की दीवार
की नज़र मैं ने जब एहसास के आईने में
अपनी जानिब नहीं अब लौटना मुमकिन मेरा
कोई भी रुत हो मिली है दुखों की फ़स्ल हमें
बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ
थे मिरे ज़ख़्मों के आईने तमाम