अपनी जानिब नहीं अब लौटना मुमकिन मेरा
ढल गया हूँ मैं सरापा तिरे आईने में
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थे मिरे ज़ख़्मों के आईने तमाम
मुद्दतें गुज़रीं मुलाक़ात हुई थी तुम से
बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ
तमाम आलम से मोड़ कर मुँह मैं अपने अंदर समा गया हूँ
है राह-रौ के हुए हादसात की दीवार
आरज़ूएँ कमाल-आमादा
अना अना के मुक़ाबिल है राह कैसे खुले
कोई भी रुत हो मिली है दुखों की फ़स्ल हमें
अपने काँधों पे लिए फिरता हूँ अपनी ही सलीब
बिखर के रेत हुए हैं वो ख़्वाब देखे हैं