कोई भी रुत हो मिली है दुखों की फ़स्ल हमें
जो मौसम आया है उस के इताब देखे हैं
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थे मिरे ज़ख़्मों के आईने तमाम
अना अना के मुक़ाबिल है राह कैसे खुले
अपने काँधों पे लिए फिरता हूँ अपनी ही सलीब
सब नज़र आते हैं चेहरे गर्द गर्द
आरज़ूएँ कमाल-आमादा
बिखर के रेत हुए हैं वो ख़्वाब देखे हैं
तमाम आलम से मोड़ कर मुँह मैं अपने अंदर समा गया हूँ
अपनी जानिब नहीं अब लौटना मुमकिन मेरा
मुद्दतें गुज़रीं मुलाक़ात हुई थी तुम से
हर इक कमाल को देखा जो हम ने रू ब-ज़वाल
शब-ए-दराज़ का है क़िस्सा मुख़्तसर 'कैफ़ी'