सब नज़र आते हैं चेहरे गर्द गर्द
क्या हुए बे-आब आईने तमाम
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मिले वो लम्हा जिसे अपना कह सकें 'कैफ़ी'
बिखर के रेत हुए हैं वो ख़्वाब देखे हैं
थे मिरे ज़ख़्मों के आईने तमाम
की नज़र मैं ने जब एहसास के आईने में
तमाम आलम से मोड़ कर मुँह मैं अपने अंदर समा गया हूँ
मुद्दतें गुज़रीं मुलाक़ात हुई थी तुम से
अना अना के मुक़ाबिल है राह कैसे खुले
शब-ए-दराज़ का है क़िस्सा मुख़्तसर 'कैफ़ी'
हर इक कमाल को देखा जो हम ने रू ब-ज़वाल
अपने काँधों पे लिए फिरता हूँ अपनी ही सलीब