अश्कों में पिरो के उस की यादें
पानी पे किताब लिख रहा हूँ
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दिल की दहलीज़ पे जब शाम का साया उतरा
तिश्ना-कामों को यहाँ कौन सुबू देता है
हम तीरगी में शम्अ जलाए हुए तो हैं
कुछ न कुछ तो होता है इक तिरे न होने से
ऐ ख़ुदा इंसान की तक़्सीम-दर-तक़्सीम देख
सब उम्मीदें मिरे आशोब-ए-तमन्ना तक थीं
दुनिया कहाँ थी पास-ए-विरासत के ज़िम्न में
शहर-ए-ना-पुरसाँ में कुछ अपना पता मिलता नहीं
कौन देखे मेरी शाख़ों के समर टूटे हुए
सुब्ह आँख खुलती है एक दिन निकलता है