ऐ ख़ुदा इंसान की तक़्सीम-दर-तक़्सीम देख
पारसाओं देवताओं क़ातिलों के दरमियाँ
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अश्कों में पिरो के उस की यादें
तिश्ना-कामों को यहाँ कौन सुबू देता है
'हबीब-जालिब'
पल रहे हैं कितने अंदेशे दिलों के दरमियाँ
दिल की दहलीज़ पे जब शाम का साया उतरा
सुब्ह आँख खुलती है एक दिन निकलता है
शहर-ए-ना-पुरसाँ में कुछ अपना पता मिलता नहीं
सब उम्मीदें मिरे आशोब-ए-तमन्ना तक थीं
कौन देखे मेरी शाख़ों के समर टूटे हुए