दिल की दहलीज़ पे जब शाम का साया उतरा
उफ़ुक़-ए-दर्द से सीने में उजाला उतरा
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शहर-ए-ना-पुरसाँ में कुछ अपना पता मिलता नहीं
ऐ ख़ुदा इंसान की तक़्सीम-दर-तक़्सीम देख
सब उम्मीदें मिरे आशोब-ए-तमन्ना तक थीं
उम्मीद का बाब लिख रहा हूँ
पल रहे हैं कितने अंदेशे दिलों के दरमियाँ
तिश्ना-कामों को यहाँ कौन सुबू देता है
याद-ए-याराँ दिल में आई हूक बन कर रह गई
दुनिया कहाँ थी पास-ए-विरासत के ज़िम्न में
'हबीब-जालिब'
कुछ न कुछ तो होता है इक तिरे न होने से