दुनिया कहाँ थी पास-ए-विरासत के ज़िम्न में
इक दीन था सो उस पे लुटाए हुए तो हैं
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कौन देखे मेरी शाख़ों के समर टूटे हुए
कुछ न कुछ तो होता है इक तिरे न होने से
सुब्ह आँख खुलती है एक दिन निकलता है
'हबीब-जालिब'
शहर-ए-ना-पुरसाँ में कुछ अपना पता मिलता नहीं
अश्कों में पिरो के उस की यादें
ऐ ख़ुदा इंसान की तक़्सीम-दर-तक़्सीम देख
उम्मीद का बाब लिख रहा हूँ
तिश्ना-कामों को यहाँ कौन सुबू देता है
सब उम्मीदें मिरे आशोब-ए-तमन्ना तक थीं