बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी
बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी
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'हसरत' जो सुन रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का हाल
न सही गर उन्हें ख़याल नहीं
ख़ूब-रूयों से यारियाँ न गईं
पुर्सिश-ए-हाल पे है ख़ातिर-ए-जानाँ माइल
हाइल थी बीच में जो रज़ाई तमाम शब
और तो पास मिरे हिज्र में क्या रक्खा है
ख़ंदा-ए-अहल-ए-जहाँ की मुझे पर्वा क्या है
दर्द-ए-दिल की उन्हें ख़बर न हुई
हुस्न-ए-बे-मेहर को परवा-ए-तमन्ना क्या हो
दिल को ख़याल-ए-यार ने मख़्मूर कर दिया
हक़ीक़त खुल गई 'हसरत' तिरे तर्क-ए-मोहब्बत की
शेर दर-अस्ल हैं वही 'हसरत'