कू-ए-क़ातिल में बसेगी नई दुनिया इक और
रोज़ होता है नया शहर-ए-ख़मोशाँ आबाद
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दिल ले गई वो ज़ुल्फ़-ए-रसा काम कर गई
बुतों का सामना है और मैं हूँ
किधर का चाँद हुआ 'मेहर' के जो घर आए
बुतों का ज़िक्र करो वाइज़ ख़ुदा को किस ने देखा है
करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस
दीदा-ए-जौहर से बीना हो गया
दरिया तूफ़ान बह रहा है
अजब है 'मेहर' से उस शोख़ की विसाल का वक़्त
ब-ख़ुदा हैं तिरी हिन्दू बुत-ए-मय-ख़्वार आँखें
बोसे लेते हैं चश्म-ए-जानाँ के
गुलज़ार में फिर कोई गुल-ए-ताज़ा खिला क्या
वहदहू-ला-शरीक की है क़सम