गुलज़ार में फिर कोई गुल-ए-ताज़ा खिला क्या
घबराई सी फिरती है तू ऐ बाद-ए-सबा क्या
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न ले जा दैर से का'बा हमें ज़ाहिद कि हम वाँ भी
बदन-ए-यार की बू-बास उड़ा लाए हवा
ख़ूब-रूई पे है क्या नाज़ बुतान-ए-लंदन
उस का हाल-ए-कमर खुला हमदम
पूछेगा जो वो रश्क-ए-क़मर हाल हमारा
दोनों उसी के बंदे हैं यकता है वो करीम
कोई ले कर ख़बर नहीं आता
बे-क़रारी रोज़-ओ-शब करने लगा
रंग-ए-सोहबत बदलते जाते हैं
तिरी तलाश से बाक़ी कोई मकाँ न रहा
चैन पहलू में उसे सुब्ह नहीं शाम नहीं
इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा