दोनों उसी के बंदे हैं यकता है वो करीम
ऐ चश्म-ए-तर है तू भी बड़ी आश्ना-परस्त
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कूचे में जो उस शोख़-हसीं के न रहेंगे
याद में इक शोख़ पंजाबी के रोते हैं जो हम
ख़ूब-रूई पे है क्या नाज़ बुतान-ए-लंदन
रातों को बुत बग़ल में हैं क़ुरआँ तमाम दिन
उस ज़ुल्फ़ के सौदे का ख़लल जाए तो अच्छा
बदन-ए-यार की बू-बास उड़ा लाए हवा
पुतली की एवज़ हूँ बुत-ए-राना-ए-बनारस
क़त्अ हो कर काकुल-ए-शब-गीर आधी रह गई
दर-ब-दर मारा-फिरा मैं जुस्तुजू-ए-यार में
साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ