ख़ूब-रूई पे है क्या नाज़ बुतान-ए-लंदन
हैं फ़क़त रूई के गालों की तरह गाल सफ़ेद
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अपना बातिन ख़ूब है ज़ाहिर से भी ऐ जान-ए-जाँ
दीदा-ए-जौहर से बीना हो गया
कूचे में जो उस शोख़-हसीं के न रहेंगे
ईज़ाएँ उठाए हुए दुख पाए हुए हैं
पुतली की एवज़ हूँ बुत-ए-राना-ए-बनारस
क़त्अ हो कर काकुल-ए-शब-गीर आधी रह गई
रात दिन सज्दे किया करता है हूरों के लिए
इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा
दर-ब-दर मारा-फिरा मैं जुस्तुजू-ए-यार में
मार डाला तिरी आँखों ने हमें
डुबोएगी बुतो ये जिस्म दरिया-बार पानी में
तिरी तलाश से बाक़ी कोई मकाँ न रहा